Mehshar Afridi – Gazal (40 ग़ज़ल) Best Collection

Mehshar Afridi – Gazal (40 ग़ज़ल) Best Collection

Mehshar Afridi

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चंद गज़ की शहरियत (शहरीपन) किस काम की
उड़ना आता है तो छत किस काम की

जब तुम्हें चेहरे बदलने का है शौक़
फिर तुम्हारी असलियत किस काम की

पूछने वाला नहीं कोई मिजाज़
इस क़दर भी ख़ैरियत किस काम की

हम भी कपड़ों को अगर तरजीह दें
फिर हमारी शख़्सियत किस काम की
~ Mehshar Afridi


इतना मजबूर न कर बात बनाने लग जाए
हम तेरे सर की क़सम झूठ ही खाने लग जाए

इतने सन्नाटे पिए मेरी समा’अत (सुनने की शक्ति) ने कि अब
सिर्फ़ आवाज़ पे चाहूँ तो निशाने लग‌ जाए

मैं अगर अपनी जवानी के सुना दूँ क़िस्से
ये जो लौंडे हैं मेरे पाँव दबाने लग जाए
~ Mehshar Afridi


हर अँधेरा रौशनी में लग गया
जिसको देखो शायरी में लग गया

हमको मर जाने की फ़ुर्सत कब मिली
वक़्त सारा ज़िन्दगी में लग गया

अपना मैख़ाना बना सकते थे हम
इतना पैसा मैकशी में लग गया

ख़ुद से इतनी दूर जा निकले थे हम
इक ज़माना वापसी में लग गया
~ Mehshar Afridi


ग़म की दौलत मुफ़्त लुटा दूँ बिल्कुल नहीं
अश्कों में ये दर्द बहा दूँ बिल्कुल नहीं

तूने तो औक़ात दिखा दी है अपनी
मैं अपना मेयार गिरा दूँ बिल्कुल नही

एक नजूमी (ज्योतिषी) सबको ख़्वाब दिखाता है
मैं भी अपना हाथ दिखा दूँ बिल्कुल नहीं

मेरे अंदर इक ख़ामोशी चीखती है
तो क्या मैं भी शोर मचा दूँ बिल्कुल नहीं
~ Mehshar Afridi


बग़ैर उसको बताए निभाना पड़ता है
ये इश्क़ राज़ है इसको छुपाना पड़ता है

मैं अपने ज़हन की ज़िद से बहुत परेशाँ हूँ
तेरे ख़याल की चौखट पे आना पड़ता है

तेरे बग़ैर ही अच्छे थे क्या मुसीबत है
ये कैसा प्यार है हर दिन जताना पड़ता है
~ Mehshar Afridi


इश्क़ में दान करना पड़ता है
जाँ को हलकान करना पड़ता है

तजरबा मुफ़्त में नहीं मिलता
पहले नुक़सान करना पड़ता है

उसकी बे-लफ़्ज़ गुफ़्तुगू के लिए
आँख को कान करना पड़ता है

फिर उदासी के भी तक़ाज़े हैं
घर को वीरान करना पड़ता है
~ Mehshar Afridi


जिस्म फूलों के गठीले हो गए
नर्म लहजे भी नुकीले हो गए

क्या अंधेरे के लबों में ज़हर था
रौशनी के होंट नीले हो गए

इंकिसारी और अना की जंग में
मेरे अन्दर दो क़बीले हो गए

‘इश्क़ की फ़स्लें अभी पकी नहीं
सब्र के फल तो रसीले हो गए

साँस उखड़ेगी अभी तो देखना
आंधियों के कस तो ढीले हो गए

हम अंधेरे में बहुत सरसब्ज़ थे
(यहाँ अंधेरे का मतलब है अनभिज्ञता, अज्ञानता, या दुनियादारी से दूर रहना। सरसब्ज़ का मतलब है हरा-भरा, खुशहाल, या तरोताज़ा।)
रौशनी पड़ते ही पीले हो गए
~ Mehshar Afridi


जोश-ए-जुनूँ में आप का आँचल पकड़ लिया
घबरा के एक साँप ने संदल (चंदन) पकड़ लिया

आँसू ब-ज़िद कि साथ हमारे ही जाएगा
लेकिन घनेरी पलकों ने काजल पकड़ लिया

ये मशवरा है आप भी हमराज़ ढूँड लें
हम ने तो इक मोहल्ले का पागल पकड़ लिया

तेरे तसव्वुरात (तुम्हारी यादों और ख़यालों) से फ़ुर्सत नहीं मुझे
इस भूत ने तो गाँव का पीपल पकड़ लिया

हम ख़ुद को ‘अक़्ल-मंद जताते तो किस तरह
सो ये किया इक ‘अक़्ल से पैदल पकड़ लिया
~ Mehshar Afridi


तुम्हें क्या शय छुपानी पड़ गई है
लबों पर क्या निशानी पड़ गई है

मोहब्बत खेल समझे ख़ूब खेले
मगर तुम से निभानी पड़ गई है

तेरा बचना बहुत मुश्किल है जानाँ
तेरे पीछे जवानी पड़ गई है

जो ‘इज़्ज़त दर-ब-दर हो कर कमाई
तेरे दर पर गँवानी पड़ गई है

हसीं इतना है मेरा जानी दुश्मन
अदावत(दुश्मनी) भी निभानी पड़ गई है
~ Mehshar Afridi


हर तकल्लुफ़ बिला-ज़रूरत है
(हर औपचारिकता (तकल्लुफ़) की कोई ज़रूरत नहीं है।)
सच कहूँ आप से मोहब्बत है

मैं उसे जितना देखना चाहूँ
वो भी उतनी ही ख़ूबसूरत है

मैं बहुत ख़ुश हूँ और ख़ुशी का सबब
आप बिल्कुल नहीं हैं वहशत है
(सबब का अर्थ है “कारण” और वहशत का अर्थ है “घबराहट,” “भय,” या “वीरानी।)

मेरी साँसें भी हो गईं मशरूत
‘इश्क़ क्या है कोई मुसीबत है

और वो किस तरह करे इज़हार
मैं न समझूँ तो मुझ पे ला’नत है

आने वाले दिनों में जीता हूँ
मुझ को आइंदगाँ से निस्बत है
(आइंदगाँ का मतलब है “आने वाले लोग” या “भविष्य।” निस्बत का मतलब है “संबंध।)
~ Mehshar Afridi


ख़ुद अपनी खाल से नाख़ुन जुदा किया गया था
वो मुझ को याद था क़स्दन भुला दिया गया था

भटक रही है मिरी आत्मा धुआँ बन कर
मैं वो चराग़ हूँ जिस को बुझा दिया गया था

ये कोई बात है आतिश-परस्त लोगों की
कल एक पेड़ को ज़िंदा जला दिया गया था

मेरे लबों पे भी लब रख दिए गए थे मगर
मेरी जुबान को पहले सुखा दिया गया था

तुम्हें भी ख़्वाब दिखाएँगे वो शहादत के
मुझे भी क़त्ल से पहले सुला दिया गया था
~ Mehshar Afridi


कई दिनों के लिए बे-क़रार करते हुए
गुज़र गया कोई आँखों से प्यार करते हुए

हिरन की आँख में क्या जाने कैसा जादू था
कि हाथ काँप रहे थे शिकार करते हुए

वो उस गढ़े की जो मिट्टी थी अब नहीं मिलती
ये बात सोच ले दरिया को पार करते हुए

ज़मीर मार दिया ख़्वाहिशात ने शायद
ज़रा भी शर्म न आई उधार करते हुए

किसी ने फ़र्द-ए-शब-ए-हिज्र माँग ली मुझ से
झिजक रहा था मैं आहें शुमार करते हुए

कुछ अपनी वा’दा-ख़िलाफ़ी की इंतिहा कीजे
कि शर्म आने लगी एतबार करते हुए
~ Mehshar Afridi


तू मिला तो ‘इश्क़ के अरमाँ मुकम्मल हो गए
दिल के दरवाज़े हमेशा को मुक़फ़्फ़ल (बंद) हो गए

गुदड़ियों (फटे-पुराने कपड़े) में ला’ल होते हैं ये साबित हो गया
टाट के पर्दे तेरे जलवों से मख़मल हो गए

ग़म की काली रात उम्मीदों पे हम ने काट दी
जब ख़ुशी की चाँद रात आई तो बादल हो गए

दिल में उग आई हैं इतनी उलझनों की झाड़ियाँ
तेरी यादों के जो बाग़ीचे थे जंगल हो गए

अब तो अपना दामन-ए-रहमत मेरी जानिब उछाल
तेरी जानिब फैले फैले हाथ भी शल (बेजान) हो गए
~ Mehshar Afridi


एक ठहरे हुए तालाब में हलचल कर के
चैन पाएगा न तू भी मुझे बे-कल कर के

तेरी आँखों को दिया वक़्त तो लब छूट गए
मैं ने देखा ही नहीं तुझ को मुकम्मल कर के

अपने जोबन की तरह तू भी है अल्हड़ जानाँ (नादान)
तू ने सोने को पहन रक्खा है पीतल कर के

तेरी बाहों के हवसनाक तअस्सुर (कामुक प्रभाव) की क़सम
तू ने छोड़ा है मिरा जिस्म मो’अत्तल (बेजान) कर के
~ Mehshar Afridi


मिरे अंदर तो अब मैं भी कहाँ हूँ
बहुत दिन से बस इक ख़ाली मकाँ हूँ

बनूँगा जाने किन लफ़्ज़ों का पैकर
मैं काग़ज़ और क़लम के दरमियाँ हूँ

बुझा कर भी मुझे बेचैन है वो
अब उस की आँख में चुभता धुआँ हूँ

बुढ़ापा आ गया वहशत पे लेकिन
मैं सहरा के लिए अब भी जवाँ हूँ

माफी चाहता हूँ बोलने की
मुझे एहसास है मैं बद – जुबां हूँ
~ Mehshar Afridi


सोने का ताज रक्खे हुए सर में कुछ न था
दरवाज़ा ‘आलीशान था और घर में कुछ न था

तुम मिल गए तो कोई शिकायत नहीं रही
तुम से ज़ियादा मेरे मुक़द्दर में कुछ न था

लोहे को अपनी प्यास बुझानी थी ख़ून से
वो क़त्ल इत्तिफ़ाक़ था ख़ंजर में कुछ न था

चिड़ियों का ग़ोल और कहाँ हाथियों की फ़ौज
वो आसमानी क़हर था कंकर में कुछ न था

पूजा किए बग़ैर भी सब काम हो गए
सब कुछ मिरा यक़ीन था पत्थर में कुछ न था
~ Mehshar Afridi


दाद लेने के लिए अब ये हुनर भी चाहिए
शा’इरी को आज-कल परफॉर्मर भी चाहिए

लॉन में हल्की चहल-क़दमी से क्या तस्कीन हो
पाँव की जौलानियों को इक सफ़र भी चाहिए

सच्ची ख़बरों पर कहाँ अख़बार चलता है मियाँ
तज़्किरों के वास्ते झूटी ख़बर भी चाहिए

हम भी सब्ज़ा ही उगा लेंगे दर-ओ-दीवार पर
हाँ मगर इस के लिए ग़ालिब सा घर भी चाहिए

सिर्फ़ अबरू की कटारी से कोई मरता नहीं
क़त्ल करने के लिए तीर-ए-नज़र भी चाहिए
~ Mehshar Afridi


अना का बोझ कभी जिस्म से उतार के देख
मुझे ज़बाँ से नहीं रूह से पुकार के देख

मिरी ज़मीन पे चल तेज़ तेज़ क़दमों से
फिर इस के बा’द तू जल्वे मिरे ग़ुबार के देख

ये अश्क दिल पे गिरें तो बहुत चमकता है
कभी ये आइना तेज़ाब से निखार के देख

न पूछ मुझ से तिरे क़ुर्ब का नशा क्या है
तू अपनी अँख में डोरे मिरे ख़ुमार के देख

ज़रा तुझे भी तो एहसास-ए-हिज्र हो जानाँ
बस एक रात मिरे हाल में गुज़ार के देख
~ Mehshar Afridi


‘उक़ाबी ज़ोर ख़ुश-फ़हमी में अक्सर टूट जाता है
हवाएँ घेर लेती हैं तो शहपर टूट जाता है

किनारे तो मज़े से बैठ कर सैराब होते हैं
मगर लहरों को ढोने में समुंदर टूट जाता है

कहीं नज़रें जमाऊँ तो जलन होती है आँखों में
ज़रा पलकें झपकता हूँ तो मंज़र टूट जाता है

कैलन्डर भी कहाँ तक ख़स्ता-हाली को छुपाएँगे
नई जगहों से रोज़ाना पलसतर टूट जाता है

मिरा दुश्मन परेशाँ है मिरी माँ की दु’आओं से
वो जब भी वार करता है तो ख़ंजर टूट जाता है

कभी इंसान के हालात ऐसे भी बिगड़ते हैं
कि बिगड़ी को बनाने में मुक़द्दर टूट जाता है
~ Mehshar Afridi


मेरी तासीर तेरा जादू भी
आज़माना है अब ये पहलू भी

क्या शब-ए-वस्ल में ये जाएज़ है
मैं भी सोने लगा हूँ और तू भी

अब बताओ निबाह पाओगी
बद-ज़बाँ हूँ मैं और बद-ख़ू भी

इतना चिल्ला के क्या हुआ हासिल
मैं भी ख़ामोश हो गया तू भी

इक निशानी थी वस्ल की जानाँ
आख़िरश मर गई वो ख़ुशबू भी
~ Mehshar Afridi


दबी कुचली हुई सब ख़्वाहिशों के सर निकल आए
ज़रा पैसा हुआ तो च्यूँटियों के पर निकल आए

जहाँ मसरूफ़ियत की तेग़ मैं ने हाथ से रक्खी
निहत्ता देख कर यादों के सब लश्कर निकल आए

तुम्हारे पास हो तदबीर का इक्का तो बतलाओ
हमारी ‘अक़्ल के पत्ते तो सब जोकर निकल आए
~ Mehshar Afridi


जो मुझ पे थी वो नज़र-ए-इनायत बहाल कर
मदहोश कर मुझे मेरी हालत बहाल कर

गुमनामियों के हब्स में दम घुट के रह गया
बदनाम कर मुझे मिरी शोहरत बहाल कर

बज़्म-ए-ख़याल सूनी पड़ी है तिरे बग़ैर
मसनद सँभाल दिल की सदारत बहाल कर

इस ख़ामुशी ने मुझ को गिराँ-गोश कर दिया
इक चीख़ मार मेरी समा’अत बहाल कर

अब चाहता हूँ तख़लिया तेरे ख़याल से
कुछ दिन मिरे दिमाग़ की ख़ल्वत बहाल कर

रोने से चैन मिलता है लेकिन रुलाए कौन
ऐ मलिका-ए-सुकून अज़िय्यत बहाल कर
~ Mehshar Afridi


जैसे मसली हुई सी चादर के
शल निकलते नहीं मुक़द्दर के

कब वो मैदान-ए-जंग आएगा
पाँव दुखने लगे हैं लश्कर के

डूब कर देखिए उन आँखों में
राज़ खुल जाएँगे समंदर के

पत्थरों का नसीब चमकेगा
मुंतज़िर हैं हमारी ठोकर के

कोई मेरी तरह छुए तो सही
आप बिल्कुल नहीं हैं पत्थर के
~ Mehshar Afridi


दर्द-ए-दिल की कोई दवा ही नहीं
इस लिए मैं तो सोचता ही नहीं

अब तो मैं सिर्फ़ जीत सकता हूँ
हारने को तो कुछ बचा ही नहीं

तुम से बिछड़ा हूँ और ज़िंदा हूँ
या’नी जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं

जब से आहों का सिलसिला टूटा
साँस लेने में ज़ाइक़ा ही नहीं

या’नी अल्लाह वाले बस तुम हो
और मेरा कोई ख़ुदा ही नहीं

मुझ को भूले न भूल पाएगा
मैं ने अब तक तुझे छुआ ही नहीं
~ Mehshar Afridi


दिमाग़ अपनी जगह से हट रहा है
मगर ये दिल अभी तक डट रहा है

मिरी सारी कमाई लुट रही है
तिरा ग़म क़हक़हों में बट रहा है

ये रिश्ता थक गया है चलते चलते
सफ़र ख़ामोशियों में कट रहा है

सदा की ‘अक़्ल तो ख़ामोश ठहरी
हमेशा दिल बहुत मुँह-फट रहा है
~ Mehshar Afridi


सब्र के फल अब रसीले हो गए
अब तुम्हारे ग़म नशीले हो गए

एक पगडंडी सड़क बनने को है
ख़ौफ़ से कुछ पेड़ पीले हो गए

इंकिसारी और अना की जंग में
मेरे अंदर दो क़बीले हो गए

हम अंधेरे में बहुत सरसब्ज़ थे
रौशनी पड़ते ही पीले हो गए
~ Mehshar Afridi


मोहब्बत के नशे में चूर हैं हम
हर इक ग़म की पहुँच से दूर हैं हम

कई आँखें हमें पहचानती हैं
हसीनों में बहुत मशहूर हैं हम

बस अब जैसे हैं तेरे सामने हैं
बता अब क्या तुझे मंज़ूर हैं हम

वफ़ा ईमान-दारी बे-नियाज़ी
पुराने वक़्त का दस्तूर हैं हम

वो इस दर्जा हसीं है क्या बताएँ
मोहब्बत के लिए मजबूर हैं हम

अभी तो प्यार से देखा है उस ने
अभी दिल्ली से काफ़ी दूर हैं हम
~ Mehshar Afridi


तुम्हारे शहर से आती हुई हवा की क़सम
तमाम ज़ख़्म हरे हो गए ख़ुदा की क़सम

तमाम जिस्म महकने लगा है अपने आप
बदन में फैली हुई ‘इश्क़ की वबा की क़सम

ख़ुशामदों से मिरा काम बन गया लेकिन
ज़मीर मार दिया मैं ने इल्तिजा की क़सम

तुम्हें पुकार के हम आज तक हैं शर्मिंदा
तुम्हारे कान से लौटी हुई सदा की क़सम

अगरचे इब्न-ए-‘अली की मैं ख़ाक-ए-पा भी नहीं
मगर मैं प्यास का दरिया हूँ कर्बला की क़सम

मैं तुम को फ़ोन करूँगा न तुम मुझे मैसेज
तुम्हें ग़ुरूर की मुझ को मिरी अना की क़सम
~ Mehshar Afridi


अपने ख़ाली-पन को भरना छोड़ दिया
तन्हाई से बिल्कुल डरना छोड़ दिया

अब तो मुझ को मेरे हाल में जीने दो
अब तो मैं ने तुम पे मरना छोड़ दिया

तुम को हिचकी आने से भी दिक़्क़त थी
मैं ने तुम को याद ही करना छोड़ दिया

आख़िर तुम पर हिज्र असर-अंदाज़ हुआ
तुम ने आख़िर-कार सँवरना छोड़ दिया

उस ने पिंजरा खोल के पहली ग़लती की
दूसरी ग़लती पंख कतरना छोड़ दिया
~ Mehshar Afridi


हवा के चलते ही बादल का साफ़ हो जाना
जो हब्स टूटना बारिश ख़िलाफ़ हो जाना

मिरे ख़मीर की दहक़ानियत जताता है
ये तुम से मिल के मिरा शीन क़ाफ़ हो जाना

ग़ुरूर-ए-हुस्न से कोई उमीद मत करना
ख़ताएँ करना तो ख़ुद ही मुआ’फ़ हो जाना

मैं तेज़ धूप में जल कर भी याद करता हूँ
वो सर्द रात में उस का लिहाफ़ हो जाना

मुझ ऐसे शख़्स को रौशन-ज़मीर कर देगा
वो बे-क़रार है ये इंकिशाफ़ हो जाना
~ Mehshar Afridi


मरज़ के वास्ते इतनी दवा ज्यादा है
मिरे सवाल से तेरी अता ज्यादा है

तुम्हारी सुब्ह में एक रंग है नदामत का
मुझे भी रात से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा ज्यादा है

मिरी वफ़ाओं की उजरत तुम्हारी जान में है
मिरे हिसाब से ये ख़ूँ-बहा ज्यादा है

शराब-ए-इश्क़ है दोनों के जाम में लेकिन
मिरी शराब में ख़ून-ए-वफ़ा ज्यादा है

न जाने ढल गया कैसे मैं तेरे साँचे में
मिरे मिज़ाज में वैसे अना ज्यादा है

ये शोहरतें नए दुश्मन बहुत बनाती हैं
सँभल के रहना तुम्हारी हवा ज्यादा है
~ Mehshar Afridi


छोटे भाई से भी जज़्बात नहीं मिलते हैं
ख़ून मिलता है ख़यालात नहीं मिलते हैं

कैसे आना हुआ क्या बात है सब ख़ैर तो है
क्यों कि सर आप तो बे-बात नहीं मिलते हैं

मेरे जज़्बात भी सच्चे हैं इरादे मज़बूत
ये भी सच है कभी दिन रात नहीं मिलते हैं

कितनी आँखें हैं जो कर देती हैं निय्यत को ख़राब
लेकिन इन में भी ख़राबात नहीं मिलते हैं

इतना ख़ाली है वो कमरा मैं जहाँ क़ैद में हूँ
ख़ुदकुशी के लिए आलात नहीं मिलते हैं

कुछ जवाबों से सवालात खड़े होते हैं
फिर सवालों के जवाबात नहीं मिलते हैं
~ Mehshar Afridi


जो चंद लम्हों में बन गया था वो सिलसिला ख़त्म हो गया है
ये तुम ने कैसा यक़ीं दिलाया मुग़ालता ख़त्म हो गया है

ज़बान होंटों पे जा के फीकी ही लौट आती है कुछ दिनों से
नमक नहीं है तिरे लबों में या ज़ाइक़ा ख़त्म हो गया है

गुमान गाँव से मैं चला था यक़ीन की मंज़िलों की जानिब
मगर तवहहुम के जंगलों में ही रास्ता ख़त्म हो गया है

वो गुफ़्तुगूओं के नर्म चश्मे कहीं फ़ज़ा में ही जम गए हैं
वो सारे मैसेज वो शा’इरी का तबादला ख़त्म हो गया है

कल एक सदमा पड़ा था हम पर के जिस ने दिल को हिला दिया था
चलो के सीने का जाएज़ा लें कि ज़लज़ला ख़त्म हो गया है

मिरे तसव्वुर में इतनी वुस’अत नहीं के तेरा बदन समाए
मैं तुझ को सोचूँ तो ऐसा लगता है हाफ़िज़ा ख़त्म हो गया है

मैं तुझ को पा कर ही मुतमइन हूँ अब और कोई तलब नहीं है
जो आज तक था नसीब से वो मुतालबा ख़त्म हो गया है
~ Mehshar Afridi


मियाँ वो दिन गए अब ये हिमाक़त कौन करता है
वो क्या कहते हैं उस को हाँ मोहब्बत कौन करता है

ख़ुदा से चाहते हैं सब सिला अपनी सख़ावत का
किसी मजबूर पर यूँ ही ‘इनायत कौन करता है

कभी सोचा है कैसे ख़ैरियत से घर पहुँचते हो
ये सब किस की दु’आएँ हैं हिफ़ाज़त कौन करता है

कोई ग़म से परेशाँ है कोई जन्नत का तालिब है
ग़रज़ सज्दे कराती है ‘इबादत कौन करता है

गुनाहों के लिए इंसान ज़िम्मा-दार है बे-शक
मगर फिर भी बग़ैर उस की इजाज़त कौन करता है
~ Mehshar Afridi


नशे की आग में देखा गुलाब या’नी तू
बदन के जाम में देसी शराब या’नी तू

हमारे लम्स ने सब तार कस दिए उस के
वो झनझनाने को बेकल रबाब या’नी तू

हर एक चेहरा नज़र से चखा हुआ देखा
हर इक नज़र से अछूता शबाब या’नी तू

सफ़ेद क़लमें हुईं तो सियाह-ज़ुल्फ़ मिली
अब ऐसी उम्र में ये इंक़लाब या’नी तू

मैं ख़ुद ही अपनी निगाहों कि दाद देता हूँ
हज़ार चेहरों में इक इंतिख़ाब या’नी तू

मिले मिले न मिले नेकियों का फल मुझ को
ख़ुदा ने दे दिया मुझ को सवाब या’नी तू

गुदाज़ जिस्म कमल होंट मर्मरी बाहें
मिरी तबी’अत पे लिक्खी किताब या’नी तू

मैं तेरे इश्क़ से पहले गुनाह करता था
मुझे दिया गया दिलकश अज़ाब या’नी तू
~ Mehshar Afridi


तेरे ख़ामोश तकल्लुम का सहारा हो जाऊँ
तेरा अंदाज़ बदल दूँ तिरा लहजा हो जाऊँ

तू मिरे लम्स की तासीर से वाक़िफ़ ही नहीं
तुझ को छू लूँ तो तिरे जिस्म का हिस्सा हो जाऊँ

तेरे होंटों के लिए होंट मेरे आब-ए-हयात
और कोई जो छुए ज़हर का प्याला हो जाऊँ

कर दिया तेरे तग़ाफ़ुल ने अधूरा मुझ को
एक हिचकी अगर आ जाए तो पूरा हो जाऊँ

दिल ये करता है कि इस उम्र की पगडंडी पर
उल्टे पैरों से चलूँ फिर वही लड़का हो जाऊँ

अपनी तकलीम का कुछ ज़ाइक़ा तब्दील करूँ
तुझ से बिछड़ूँ मैं ज़रा देर अधूरा हो जाऊँ

दिल कि सोहबत मुझे हर वक़्त जवाँ रखती है
अक़्ल के साथ चला जाऊँ तो बुढ्ढा हो जाऊँ

इस क़दर चीख़ती रहती है ख़ामोशी मुझ में
शोर कानों में उतर जाए तो बहरा हो जाऊँ

तेरे चढ़ते हुए दरिया को पशेमाँ कर दूँ
तुझ को पाने के लिए रेत का सहरा हो जाऊँ

आप हस्ती को तिरे शौक़ पे क़ुर्बान करूँ
तू अगर तोड़ के ख़ुश हो तो खिलौना हो जाऊँ
~ Mehshar Afridi


तेरे होंठों के तबस्सुम का तलबगार हूँ मैं
अपने ग़म बेच दे रद्दी का ख़रीदार हूँ मैं

मेरी हालत पे तकब्बुर नहीं अफ़्सोस भी कर
तेरा आशिक़ नहीं जानाँ तिरा बीमार हूँ मैं

कल तिरी होश-रुबाई से हुआ था आज़ाद
आज फिर इक नए जादू में गिरफ़्तार हूँ मैं

इन दिनों यूँ कि तिरा इश्क़ गराँ है मुझ पर
बे-दिली ऐसी के अपने से ही बेज़ार हूँ मैं

मेरे हर ग़म की किफ़ालत भी मिरा ज़िम्मा है
अपने ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती का अज़ादार हूँ मैं

हँसते हँसते मिरी आँखों में नमी आ गई है
तू ने देखा नहीं किस दर्जा अदाकार हूँ मैं
~ Mehshar Afridi


अना का बोझ कभी जिस्म से उतार के देख
मुझे ज़बाँ से नहीं रूह से पुकार के देख

मेरी ज़मीन पे चल तेज़ तेज़ क़दमों से
फिर उस के बा’द तू जल्वे मिरे ग़ुबार के देख

ये अश्क दिल पे गिरें तो बहुत चमकता है
कभी ये आइना तेज़ाब से निखार के देख

न पूछ मुझ से तिरे क़ुर्ब का नशा क्या है
तू अपनी आँख में डोरे मिरे ख़ुमार के देख

ज़रा तुझे भी तो एहसास-ए-हिज्र हो जानाँ
बस एक रात मेरे हाल में गुज़ार के देख

अभी तो सिर्फ़ कमाल-ए-ग़ुरूर देखा है
तुझे क़सम है तमाशे भी इंकिसार के देख
~ Mehshar Afridi


ये सोचता हूँ चराग़ों का एहतिमाम करूँ
हवा को भूक लगी है कुछ इंतिज़ाम करूँ

हर एक साँस रगड़ खा रही है सीने में
और आप कहते हैं आहों पे और काम करूँ

अभी तो दिल की क़यादत में पाँव निकले हैं
तलाश-ए-इश्क़ रुके तो कहीं क़याम करूँ

ख़ता-मुआफ़ मगर इतना बे-अदब भी नहीं
बग़ैर दिल की इजाज़त तुम्हें सलाम करूँ

फ़क़ीर-ए-इश्क़ हूँ कश्कोल-ए-दिल में हसरत है
गदागरी का महासिल भी तेरे नाम करूँ

मेरे जुनून को सहरा ही झेल सकता है
कहीं जो शहर में निकलूँ तो क़त्ल-ए-आम करूँ
~ Mehshar Afridi


लब-ए-साहिल समुंदर की फ़रावानी से मर जाऊँ
मुझे वो प्यास है शायद कि मैं पानी से मर जाऊँ

तुम उस को देख कर छू कर भी ज़िंदा लौट आए हो
मैं उस को ख़्वाब में देखूँ तो हैरानी से मर जाऊँ

मैं इतना सख़्त-जाँ हूँ दम बड़ी मुश्किल से निकलेगा
ज़रा तकलीफ़ बढ़ जाए तो आसानी से मर जाऊँ

ग़नीमत है परिंदे मेरी तन्हाई समझते हैं
अगर ये भी न हों तो घर के वीराने से मर जाऊँ

नज़र-अंदाज़ कर मुझ को ज़रा सा खुल के जीने दे
कहीं ऐसा न हो तेरी निगहबानी से मर जाऊँ

बहुत से शे’र मुझ से ख़ून थुकवाते हैं आमद पर
बहुत मुमकिन है मैं एक दिन ग़ज़ल-ख़्वानी से मर जाऊँ

तेरी नज़रों से गिर कर आज भी ज़िंदा हूँ मैं क्या ख़ूब
तक़ाज़ा है ये ग़ैरत का पशेमानी से मर जाऊँ
~ Mehshar Afridi


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