
यहाँ Meraj Faizabadi की सभी गज़लों का Collection उपलब्ध है।
मिरे थके हुए शानों से बोझ उतर तो गया
बहुत तवील था ये दिन मगर गुज़र तो गया
लगा के दाव पे साँसों की आख़िरी पूँजी
वो मुतमइन है चलो हारने का डर तो गया
कसी गुनाह की परछाइयाँ थीं चेहरे पर
समझ न पाया मगर आइने से डर तो गया
ये और बात कि काँधों पे ले गए हैं उसे
किसी बहाने से दीवाना आज घर तो गया
~ Meraj Faizabadi
गूँगे लफ़्ज़ों का ये बे-सम्त सफ़र मेरा है
गुफ़्तुगू उस की है लहजे में असर मेरा है
मैं ने खोए हैं यहाँ अपने सुनहरे शब ओ रोज़
दर-ओ-दीवार किसी के हों ये घर मेरा है
मेरा अस्लाफ़ से रिश्ता तो न तोड़ ऐ दुनिया
सब महल तेरे हैं लेकिन ये खंडर मेरा है
आती जाती हुई फ़स्लों का मुहाफ़िज़ हूँ मैं
फल तो सब उस की अमानत हैं शजर मेरा है
मेरे आँगन के मुक़द्दर में अँधेरा ही सही
इक चराग़ अब भी सर-ए-राहगुज़र मेरा है
दूर तक दार-ओ-रसन दार-ओ-रसन दार-ओ-रसन
ऐसे हालात में जीना भी हुनर मेरा है
जब भी तलवार उठाता हूँ कि छेड़ूँ कोई जंग
ऐसा लगता है कि हर शाने पे सर मेरा है
~ Meraj Faizabadi
थकी हुई मामता की क़ीमत लगा रहे हैं
अमीर बेटे दुआ की क़ीमत लगा रहे हैं
मैं जिन को उँगली पकड़ के चलना सिखा चुका हूँ
वो आज मेरे असा की क़ीमत लगा रहे हैं
मिरी ज़रूरत ने फ़न को नीलाम कर दिया है
तो लोग मेरी अना की क़ीमत लगा रहे हैं
मैं आँधियों से मुसालहत कैसे कर सकूँगा
चराग़ मेरे हवा की क़ीमत लगा रहे हैं
यहाँ पे ‘मेराज’ तेरे लफ़्ज़ों की आबरू क्या
ये लोग बाँग-ए-दरा की क़ीमत लगा रहे हैं
~ Meraj Faizabadi
ऐ दश्त-ए-आरज़ू मुझे मंज़िल की आस दे
मेरी थकन को गर्द-ए-सफ़र का लिबास दे
परवर-दिगार तू ने समुंदर तो दे दिए
अब मेरे ख़ुश्क होंटों को सहरा की प्यास दे
फ़ुर्सत कहाँ कि ज़ेहन मसाइल से लड़ सकें
इस नस्ल को किताब न दे इक़्तिबास दे
आँसू न पी सकेंगे ये तन्हाइयों का ज़हर
बख़्शा है ग़म मुझे तो कोई ग़म-शनास दे
लफ़्ज़ों में जज़्ब हो गया सब ज़िंदगी का ज़हर
लहजा बचा है इस को ग़ज़ल की मिठास दे
~ Meraj Faizabadi
ऐ यक़ीनों के ख़ुदा शहर-ए-गुमाँ किस का है
नूर तेरा है चराग़ों में धुआँ किस का है
क्या ये मौसम तिरे क़ानून के पाबंद नहीं
मौसम-ए-गुल में ये दस्तूर-ए-ख़िज़ाँ किस का है
राख के शहर में एक एक से मैं पूछता हूँ
ये जो महफ़ूज़ है अब तक ये मकाँ किस का है
मेरे माथे पे तो ये दाग़ नहीं था पहले
आज आईने में उभरा जो निशाँ किस का है
वही तपता हुआ सहरा वही सूखे हुए होंट
फ़ैसला कौन करे आब-ए-रवाँ किस का है
चंद रिश्तों के खिलौने हैं जो हम खेलते हैं
वर्ना सब जानते हैं कौन यहाँ किस का है
~ Meraj Faizabadi
जिस्म का बोझ उठाए हुए चलते रहिए
धूप में बर्फ़ की मानिंद पिघलते रहिए
ये तबस्सुम तो है चेहरों की सजाट के लिए
वर्ना एहसास वो दोज़ख़ है कि जलते रहिए
अब थकन पाँव की ज़ंजीर बनी जाती है
राह का ख़ौफ़ ये कहता है कि चलते रहिए
ज़िंदगी भीक भी देती है तो क़ीमत ले कर
रोज़ फ़रियाद का अंदाज़ बदलते रहिए
~ Meraj Faizabadi
एक टूटी हुई ज़ंजीर की फ़रियाद हैं हम
और दुनिया ये समझती है कि आज़ाद हैं हम
क्यूँ हमें लोग समझते हैं यहाँ परदेसी
एक मुद्दत से इसी शहर में आबाद हैं हम
काहे का तर्क-ए-वतन काहे की हिजरत बाबा
इसी धरती की इसी देश की औलाद हैं हम
हम भी त’अमीर-ए-वतन में हैं बराबर के शरीक
दर-ओ-दीवार अगर तुम हो तो बुनियाद हैं हम
हम को इस दौर-ए-तरक़्क़ी ने दिया क्या ‘मेराज’
कल भी बर्बाद थे और आज भी बर्बाद हैं हम
~ Meraj Faizabadi
चराग़ अपनी थकन की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है कि अब ख़्वाब तक दिखाई न दे
मसर्रतों में भी जागे गुनाह का एहसास
मेरे वजूद को इतनी भी पारसाई न दे
बहुत सताते हैं रिश्ते जो टूट जाते हैं
ख़ुदा किसी को भी तौफ़ीक़-ए-आश्नाई न दे
मैं सारी उम्र अँधेरों में काट सकता हूँ
मेरे दियों को मगर रौशनी पराई न दे
अगर यही तिरी दुनिया का हाल है मालिक
तो मेरी क़ैद भली है मुझे रिहाई न दे
दुआ ये माँगी है सहमे हुए मुअर्रिख़ ने
कि अब क़लम को ख़ुदा सुर्ख़ रौशनाई न दे
~ Meraj Faizabadi
हम ग़ज़ल में तेरा चर्चा नहीं होने देते
तेरी यादों को भी रुस्वा नहीं होने देते
कुछ तो हम ख़ुद भी नहीं चाहते शोहरत अपनी
और कुछ लोग भी ऐसा नहीं होने देते
अज़्मतें अपने चराग़ों की बचाने के लिए
हम किसी घर में उजाला नहीं होने देते
आज भी गाँव में कुछ कच्चे मकानों वाले
घर में हम-साए के फ़ाक़ा नहीं होने देते
ज़िक्र करते हैं तिरा नाम नहीं लेते हैं
हम समुंदर को जज़ीरा नहीं होने देते
मुझ को थकने नहीं देता ये ज़रूरत का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते
~ Meraj Faizabadi
बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन
लोग तेरे जुर्म देखेंगे सबब देखेगा कौन
हाथ में सोने का कासा ले के आए हैं फ़क़ीर
इस नुमाइश में तिरा दस्त-ए-तलब देखेगा कौन
ला उठा तेशा चटानों से कोई चश्मा निकाल
सब यहाँ प्यासे हैं तेरे ख़ुश्क लब देखेगा कौन
दोस्तों की बे-ग़रज़ हमदर्दियाँ थक जाएँगी
जिस्म पर इतनी ख़राशें हैं कि सब देखेगा कौन
शायरी में ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ के ज़माने अब कहाँ
शोहरतें जब इतनी सस्ती हों अदब देखेगा कौन
~ Meraj Faizabadi
भीड़ में कोई शनासा भी नहीं छोड़ती है
ज़िंदगी मुझ को अकेला भी नहीं छोड़ती है
आफ़ियत का कोई गोशा भी नहीं छोड़ती है
और दुनिया मिरा रस्ता भी नहीं छोड़ती है
मुझ को रुस्वा भी बहुत करती है शोहरत की हवस
और शोहरत मिरा पीछा भी नहीं छोड़ती है
हम को दो घोंट की ख़ैरात ही दे दो वर्ना
प्यास पागल हो तो दरिया भी नहीं छोड़ती है
आबरू के लिए रोती है बहुत पिछले पहर
एक औरत कि जो पेशा भी नहीं छोड़ती है
डूबने वाले के हाथों में ये पागल दुनिया
एक टूटा हुआ तिनका भी नहीं छोड़ती है
अब के जब गाँव से लौटे तो ये एहसास हुआ
दुश्मनी ख़ून का रिश्ता भी नहीं छोड़ती है
क्या मुकम्मल है जुदाई कि बिछड़ जाने के ब’अद
तुझ से मिलने का बहाना भी नहीं छोड़ती है
जानते सब थे कि नफ़रत की ये काली आँधी
दश्त तो दश्त हैं दरिया भी नहीं छोड़ती है
~ Meraj Faizabadi
भीगती आँखों के मंज़र नहीं देखे जाते
हम से अब इतने समुंदर नहीं देखे जाते
उस से मिलना है तो फिर सादा-मिज़ाजी से मिलो
आईने भेस बदल कर नहीं देखे जाते
वज़’-दारी तो बुज़ुर्गों की अमानत है मगर
अब ये बिकते हुए ज़ेवर नहीं देखे जाते
ज़िंदा रहना है तो हालात से डरना कैसा
जंग लाज़िम हो तो लश्कर नहीं देखे जाते
~ Meraj Faizabadi
ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना
गुफ़्तुगू तू ने सिखाई है कि मैं गूँगा था
अब मैं बोलूँगा तो बातों में असर भी देना
मैं तो इस ख़ाना-बदोशी में भी ख़ुश हूँ लेकिन
अगली नस्लें तो न भटकें उन्हें घर भी देना
ज़ुल्म और सब्र का ये खेल मुकम्मल हो जाए
उस को ख़ंजर जो दिया है मुझे सर भी देना
~ Meraj Faizabadi