Tehzeeb Hafi – Gazal (41 ग़ज़ल) Best Shayri Collection

Tehzeeb Hafi – Gazal (41 ग़ज़ल) Best Shayri Collection

Tehzeeb Hafi तहज़ीब हाफ़ी

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मुझे इन छतरियों से याद आया
तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया

बहम आई हवा और रौशनी भी
क़फ़स भी खिड़कियों से याद आया

मेरी कश्ती में उस ने जान दी थी
मुझे इन साहिलों से याद आया

मैं तेरे साथ चलना चाहता था
तेरी बैसाखियों से याद आया

हज़ारों चाहने वाले थे इस के
वो जंगल पंछियों से याद आया

बदन पर फूल मुरझाने लगे हैं
तुम्हारे नाख़ुनों से याद आया
~ Tehzeeb Hafi


ये एक बात समझने में रात हो गई है
मैं उस से जीत गया हूँ कि मात हो गई है

मैं अब के साल परिंदों का दिन मनाऊँगा
मिरी क़रीब के जंगल से बात हो गई है

बिछड़ के तुझ से न ख़ुश रह सकूँगा सोचा था
तिरी जुदाई ही वज्ह-ए-नशात हो गई है

बदन में एक तरफ़ दिन तुलूअ’ मैं ने किया
बदन के दूसरे हिस्से में रात हो गई है

मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है

रहेगा याद मदीने से वापसी का सफ़र
मैं नज़्म लिखने लगा था कि ना’त हो गई है
~ Tehzeeb Hafi


पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
मैं भीग जाऊँगा छतरी नहीं बनाऊँगा

अगर ख़ुदा ने बनाने का इख़्तियार दिया
अलम बनाऊँगा बर्छी नहीं बनाऊँगा

फ़रेब दे के तिरा जिस्म जीत लूँ लेकिन
मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊँगा

गली से कोई भी गुज़रे तो चौंक उठता हूँ
नए मकान में खिड़की नहीं बनाऊँगा

मैं दुश्मनों से अगर जंग जीत भी जाऊँ
तो उन की औरतें क़ैदी नहीं बनाऊँगा

तुम्हें पता तो चले बे-ज़बान चीज़ का दुख
मैं अब चराग़ की लौ ही नहीं बनाऊँगा

मैं एक फ़िल्म बनाऊँगा अपने ‘सरवत’ पर
और इस में रेल की पटरी नहीं बनाऊँगा
~ Tehzeeb Hafi


बिछड़ कर उस का दिल लग भी गया तो क्या लगेगा
वो थक जाएगा और मेरे गले से आ लगेगा

मैं मुश्किल में तुम्हारे काम आऊँ या न आऊँ
मुझे आवाज़ दे लेना तुम्हें अच्छा लगेगा

मैं जिस कोशिश से उस को भूल जाने में लगा हूँ
ज़ियादा भी अगर लग जाए तो हफ़्ता लगेगा

मिरे हाथों से लग कर फूल मिट्टी हो रहे हैं
मिरी आँखों से दरिया देखना सहरा लगेगा

मिरा दुश्मन सुना है कल से भूका लड़ रहा है
ये पहला तीर उस को नाश्ते में जा लगेगा

कई दिन उस के भी सहराओं में गुज़रे हैं ‘हाफ़ी’
सो इस निस्बत से आईना हमारा क्या लगेगा
~ Tehzeeb Hafi


जब उस की तस्वीर बनाया करता था
कमरा रंगों से भर जाया करता था

पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था

थक जाता था बादल साया करते करते
और फिर मैं बादल पे साया करता था

बैठा रहता था साहिल पे सारा दिन
दरिया मुझ से जान छुड़ाया करता था

बिंत-ए-सहरा रूठा करती थी मुझ से
मैं सहरा से रेत चुराया करता था
~ Tehzeeb Hafi


किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है

अजीब दुख है हम उस के हो कर भी उस को छूने से डर रहे हैं
अजीब दुख है हमारे हिस्से की आग औरों में बट रही है

मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है

मुझ ऐसे पेड़ों के सूखने और सब्ज़ होने से क्या किसी को
ये बेल शायद किसी मुसीबत में है जो मुझ से लिपट रही है

ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है

सो इस त’अल्लुक़ में जो ग़लत-फ़हमियाँ थीं अब दूर हो रही हैं
रुकी हुई गाड़ियों के चलने का वक़्त है धुंध छट रही है
~ Tehzeeb Hafi


हम तुम्हारे ग़म से बाहर आ गए
हिज्र से बचने के मंतर आ गए

मैं ने तुम को अंदर आने का कहा
तुम तो मेरे दिल के अंदर आ गए

एक ही औरत को दुनिया मान कर
इतना घूमा हूँ कि चक्कर आ गए

इम्तिहान-ए-इश्क़ मुश्किल था मगर
नक़्ल कर के अच्छे नंबर आ गए
~ Tehzeeb Hafi


क़दम रखता है जब रस्तों पे यार आहिस्ता आहिस्ता
तो छट जाता है सब गर्द-ओ-ग़ुबार आहिस्ता आहिस्ता

भरी आँखों से हो के दिल में जाना सहल थोड़ी है
चढ़े दरियाओं को करते हैं पार आहिस्ता आहिस्ता

नज़र आता है तो यूँ देखता जाता हूँ मैं उस को
कि चल पड़ता है जैसे कारोबार आहिस्ता आहिस्ता

उधर कुछ औरतें दरवाज़ों पर दौड़ी हुई आईं
इधर घोड़ों से उतरे शहसवार आहिस्ता आहिस्ता

किसी दिन कारख़ाना-ए-ग़ज़ल में काम निकलेगा
पलट आएँगे सब बे-रोज़गार आहिस्ता आहिस्ता

तिरा पैकर ख़ुदा ने भी तो फ़ुर्सत में बनाया था
बनाएगा तिरे ज़ेवर सुनार आहिस्ता आहिस्ता

मिरी गोशा-नशीनी एक दिन बाज़ार देखेगी
ज़रूरत कर रही है बे-क़रार आहिस्ता आहिस्ता
~ Tehzeeb Hafi


शोर करूँगा और न कुछ भी बोलूँगा
ख़ामोशी से अपना रोना रो लूँगा

सारी उम्र इसी ख़्वाहिश में गुज़री है
दस्तक होगी और दरवाज़ा खोलूँगा

तन्हाई में ख़ुद से बातें करनी हैं
मेरे मुँह में जो आएगा बोलूँगा

रात बहुत है तुम चाहो तो सो जाओ
मेरा क्या है मैं दिन में भी सो लूँगा

तुम को दिल की बात बतानी है लेकिन
आँखें बंद करो तो मुट्ठी खोलूँगा
~ Tehzeeb Hafi


इस एक डर से ख़्वाब देखता नहीं
मैं जो भी देखता हूँ भूलता नहीं

किसी मुंडेर पर कोई दिया जला
फिर इस के बाद क्या हुआ पता नहीं

अभी से हाथ काँपने लगे मिरे
अभी तो मैं ने वो बदन छुआ नहीं

मैं आ रहा था रास्ते में फूल थे
मैं जा रहा हूँ कोई रोकता नहीं

तेरी तरफ़ चले तो उम्र कट गई
ये और बात रास्ता कटा नहीं

मैं राह से भटक गया तो क्या हुआ
चराग़ मेरे हाथ में तो था नहीं

मैं इन दिनों हूँ ख़ुद से इतना बे-ख़बर
मैं मर चुका हूँ और मुझे पता नहीं

उस अज़दहे की आँख पूछती रही
किसी को ख़ौफ़ आ रहा है या नहीं

ये इश्क़ भी अजब कि एक शख़्स से
मुझे लगा कि हो गया हुआ नहीं

ख़ुदा करे वो पेड़ ख़ैरियत से हो
कई दिनों से उस का राब्ता नहीं
~ Tehzeeb Hafi